सालों की परवरिश हम यूँ ही भुला बैठते हैं, जिन्होंने बोलना सिखाया, हम आज उन्हें चुप कराते हैं। कितने चाव से गिनती के अंक हमें रटाए थे, अब उनकी गलतियाँ गिन-गिन कर हम सुनाते हैं। सोते नहीं थे जब तक हमारी आँखें न बंद होतीं, आज हमारी वजह से वो रातों को सो नहीं पाते हैं। हर दर्द में हमारे आँसू अपनी हथेली से पोंछते थे, अब हमारी बेरुख़ी पर ख़ुद आँसू बहाते हैं। जब जी चाहे, हक़ समझ कर उनसे लिपट जाते थे, अब उनका मन चाहे तो हम पास आने से कतराते हैं। हमारे दिए घाव भी दिल में छुपाकर रखते हैं, पर हमारी अच्छाइयाँ सबके सामने फख़्र से कहते हैं। देर अभी भी नहीं हुई है, हम बदल सकते हैं, गलती किसी की भी हो, हाथ जोड़ कर मान सकते हैं। गले लगाकर पलकों पर बिठाएँ, यही फ़र्ज़ निभाएँ, हमारे इमरोज़ हैं वो, सालों की परवरिश को यूँ न भुलाएं।
हर दिल की दास्ताँ हर शख्स को दिखानी नहीं, कुछ जज़्बात ऐसे हैं जो बयान की जानी नहीं। मत बनो वो दस्तावेज़, जिसे सब पढ़ जाएँ, जहालत के दौर में हर पन्ना फाड़ जाएँ। जब फ़ायदों की फ़सल थी, हर कोई साथ था, काम खत्म होते ही, सब चेहरे बदल गए। मोहब्बत को तौलते हैं वो बंदे ज़माने वाले, नफ़ा-नुक़सान की नज़र से देखते हैं खामोश क़िस्से। ज़ख़्म वही देते हैं, जो हँस के थाम लेते हैं हाथ, मोहब्बत की क़ीमत कभी नहीं समझ पाते साथ। रिश्तों की दुकान लगी है, इंसानियत कहीं खो गई, सुकून की तलाश में, खुद से दूर हो गया । चुप्पी को सँवारो अपनी सबसे बड़ी ताक़त बना, हर शोर में छुपा है कोई ग़म, कोई कहानी अधूरी। खुली किताब न बनो, हर किसी के लिए यहाँ, इस अंधेरे सफ़र में, सिर्फ़ वो जलते हैं जो समझें। — ✍️ आशुतोष पाणिग्राही।